( तर्ज - हर जगह की रोशनी में ० )
सोचने काबिल नहीं ,
उसको हि सोचे जा रहा ।
उम्र मिट्टी में मिला दी ,
क्या नतीजा पा रहा ? || टेक ||
घरको हो सोचा सदा ,
और जर को सोचे दिन गये ।
अब रही थोडी बखत ,
फिरभी उसीको गा रहा ॥
पेट को सारा समय ,
बाकी बचा सो शौक को ।
कुछ नहीं भगवान को ,
बैमान बनके खा रहा ॥ २ ॥
बैल होकर जिन्दगी का ,
झंझटो मे फँस गया ।
क्या बतावेगा प्रभू को ?
मुंह दिखाने क्या रहा ? ।। ३ ।।
फिर भी ईश्वर है दयालु ,
प्रार्थना कर , सर झुका |
दास तुकड्या की हमी है ,
पापी भी तर जा रहा ॥ ४ ॥
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